Tuesday, June 7, 2022

होलिका दहन

 पथरीले रास्ते

लंगड़ी टांग

विकास का नाच

चलता रहे।

झोपड़ियां जलें

रोटियां सिकें

लोकतंत्र का पेट

भरता रहे ,

तलवारें चलें

वहशत उगे

सियासत का चमन 

खिलता रहे ,

लोक की लकड़ी

तंत्र की आग

होलिका दहन

चलता रहे 

कानों में घुला ज़हर

 कानों में घुला ज़हर

यूं दिल में उतर जायेगा

कतरा कतरा हौले हौले

इख्तिलाक मर ही जायेगा 


ना हमे तुमपे यकीं

ना तुम्हें हमपे भरोसा

हो कोई भी वाकया

सवाल नीयत पे आएगा


कौन करे तरक्की, अमन

खुशहाली की बातें

कोशिशें करते ही जिक्र

हिफाज़त का आएगा


धोखे दिए तुमने हमें

लूटा कैसे हमने तुम्हें

गले मिलने से पहले, दौर 

तोहमतों का आएगा


रोजी की खातिर

बोलता है झूठ जो

डाली है फूट, खुद 

उसका शिकार हो जायेगा 


कानों में घुला ज़हर

यूं दिल में उतर जायेगा

कतरा कतरा हौले हौले

इख्तिलाक मर ही जायेगा 

Tuesday, September 8, 2020

सपनों के बीज

सृष्टि का सृजन 
नहीं होता है केवल 
विश्वकर्मा के चमत्कार से 
इसके लिए बलि लगती है 
खून पसीने और सपनों की 

ये बलि देता है एक मज़दूर 
जो मार देता है 
सपनों को लड़कपन में ही 
और दफ़्न कर देता है 
किसी सौ मंज़िला 
ईमारत की नींव में 

इन सपनों के बीज से 
उगते हैं घर-बार 
कारखाने -मशीनें 
ऐश-ओ-आराम 
और हमारी ज़िन्दगी। 

Monday, January 6, 2020

आईने का शख्स

कभी देखो आईने में खुद को
क्या पहचानते हो इस शख्स को

मिले थे जिसे तुम आईने में बचपन के
जिसे रोज निहारते बड़े हुए लड़कपन से
देखते रहे जिसका रोज़ का बाल संवारना
नए कपड़े पहनना, पहन के  उतारना

वो जो हँस हँस के गाने गाता था
हाथ छोड़ के साइकिल चलाता था
वो जो खुद के चुटकुलों पे ठहाके लगाता था
पर उस लड़की के आगे लजाता था,

उसके जैसा ये बिलकुल दिखता नहीं
हँसने गाने  मुस्कुराने को रुकता नहीं
न पता किस दौड़ में है ये
जल्दी है बहुत, किसी होड़ में है ये
खीझता है जूझता है परेशान है,
जो भी हो ये शख्स कोई अनजान है

बचपन से खैर वक़्त बहुत गुजर गया
न जाने कौन आईने का शख्स बदल गया 

Sunday, December 29, 2019

लहज़े से जब बदगुमानी झलकती है
कहो कैसे न सवाल रखूं
मासूमों को जो चीरती हैं
उन शमशीरों से मोहब्बत किस हाल रखूं

Monday, April 22, 2019

किरदार

क्या उम्मीद रखूं इस जहाँ किसी से
मेरा किरदार समझने की,
क्या दोस्त क्या हमदम
मेरा आईना भी मुझको उल्टा देखता है

जितनी कमी रह जाती है
जिसके वजूद की गहराई में
वो हर किसी के पैमाने में
जाम उतना ही कम देखता है

ईमान और ज़मीर के तले
घिस घिस के कटती है जिंदगी अक्सर
और तुम कहते हो वो ऊपर बैठा
मेरे ज़ख्मों को हर दम देखता है

बोल रखा है उसने मुझे कि,
वो किसी और का हो चुका है
हैरत की बात ये है मगर
वो आज भी मुड़ मुड़ के देखता है... 


Wednesday, January 9, 2019

इक नदी

इक नदी है
जो भटकती है अटकती है
रुकावटों को झटकती है
झरनों से लटकती है
बोझ तले मिट्टी के
धीरे धीरे सरकती है
मगर बढ़ती है दिन रात
क्यूंकि सागर से मिलना है
सारी की सारी  मेहनत
सारी मशक्कत सारी जद्दोजहद
बस उससे मिल पाने को
मिटा देने को खुद को
और स्वयं सागर हो जाने को

कभी देखा है किसी को
इतना आतुर
स्वयं को ख़त्म करने को
या
स्वयं को पा लेने को