Thursday, August 4, 2011

क्षितिज

जिन्दगी यूं खेलती है खेल  हमसे
लगता है  की दूर कहीं
फलक मिल रहा है जमीं से
क़यामत तक हम यूं ही चले जायेंगे
वो मुकाम फिर भी न पायेंगे
मगर उस दम भी गुमां होता है
दूर कहीं दूर ये दोनों मिल जायेंगे.....

बरखा

उमड़ पड़े कितने रंग अम्बर पे
मन पे छाई उमंगें कैसी कैसी
छा रहा एक खुमार दिल-ओ-दिमाग पर
आसमा पे बनने लगी तस्वीरे
सभी के चेहरों जैसी 
आसमान को छूती हमारी खुशियाँ
चूम कर रंगों को  इठलाती  है 
जमीं  पर चलते चलते 
क़दमों  को आसमां  पे ले  जाती है
हिरनों सा कुलाचे भर मन
 पूरा वन घूम आता है
दिल के कोने में पड़ा एक  सपना
इस नए एहसास से मुस्काता है
........ ये बरखा का मौसम है.....