Wednesday, July 5, 2017

ठंडी चाय

कभी मुड़ जाएँ जो कदम
इन गलियों को तरफ
तो रुख,
उस घर का भी कर लेना
जहाँ, मेज़ पर तुम्हारी
ठंडी चाय रखी है,
जिसे वहां छोड़
तुम निकल गए बिना बताये
और इंतज़ार में चाय
पड़ी रही परतें जमाये,

कभी जो रुख़ करना
इस घर का तो
कोशिश करना चाय
गर्म करने की, पीने की
हालाँकि स्वाद वैसा
रहेगा नहीं,
न पी सको तो
फेंक ही देना चाहे,

गलत ही सही पर,
इक फैसला कर लेना
अच्छा होता है.

बातें तेरे बारे में

हंस के मिलता हूँ जुलता हूँ
महफ़िलों में घुलता हूँ
हर किसी से करता हूँ
बातें तेरे बारे में,

चलता हूँ तो जैसे उड़ता हूँ
यूँ ही बेवजह सा फिरता हूँ
आजकल हर शय से सुनता हूँ
बातें तेरे बारे में,

बेवक़्त कागज़ों पे बिखरता हूँ
हर्फ़ हर्फ़ क़रीने  से संवरता हूँ
मीर की ग़ज़लों सी कहता हूँ
बातें तेरे बारे में,

खुद में तुमसा ही रहता हूँ
एक धार में दो नदी सा बहता हूँ
दोनों में फर्क नहीं, पर समझता हूँ
सब हैं, बातें तेरे बारे में,

ये रास्ते सारे ख्वाब के
और सपनों की गलियां सभी
तुम्हारी ओर मुड़ी हैं
घर बार दुनिया जहान की बाते सभी
यूँ तो तुमसे नहीं
पर तुमसे ही जुडी हैं। 

Monday, April 10, 2017

कैसे कहूँ मैं कौन हूं

कैसे कहूं मैं कौन हूं?
कि कई रूप हैं मेरे
अलग लोग, अलग संगत
वैसा ही अलग अलग मैं भी
मानो एक आईना  हूँ
तुम्हारी  मेरे प्रति अपेक्षा का
कि तुम्हारी अवधारणा बदलने को
बदलता हूं मैं.
इसी बदलाव की उथल पुथल में
खुद सा ना रहा  हूँ
कैसे कहूँ  मैं कौन हूँ ?

ढलता हूं नित नये आकार में
आयाम बदलता हूं व्यवहार के
जिसने जैसा चाहा
वैसा होता रहा हूं
हां मगर थोड़ा थोड़ा
खोता रहा हूँ
सर्वमान्य सम्पूर्ण होने की चाह में
अधूरा सा होता रहा हूँ
कहो कैसे कहूँ मैं कौन हूं?

दूसरों के तराजू में
अपना वजूद तौलता हूँ
और नापने को मन की गहराई
मापने उधार के लूंँ
तुम्हारे अनकहे नियम और शर्तों पर
खुद की संरचना करता हूँ
भिन्न-भिन्न दिशानिर्देशों पे चल
अपने मन को गढ़ता हूँ
पर होना कुछ अलग सा चाहूं
कहो कैसे कहूँ मैं कौन हूं?

Monday, January 16, 2017

सेमल के बीज

तुम, मैं, हम- सब
सेमल के बीज से हैं
पैदा हुए रेशमी ख्यालों के साथ
ख्वाबों के परों में हवा लिए

उड़ने को बेताब थे मानो कितने अरसे से
की अब छूटे तो हाथ न आएंगे
निकले तो यूँ की दुनिया नाप लेंगे
देखेंगे ये जमीं रख के पैरों तले

मगर न जाने कहा से एक सोच उभर आयी
कि, आखिर बीज हैं हम !
कहीं जमना है उगना है पेड़ होना है
उड़ना ही लक्ष्य नहीं, कहीं रुकना भी है

सृष्टि का चक्र गतिमान रखना है
जीवन दायित्व का वहन करना है
पर क्यूँ ??

जब उड़ सकते हैं सतरंगी फलक पे
इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
तो क्यूँ रुके?? क्यूँ उगें?? क्यूँ जमें ??

क्यूँ न घूमें बेफिक्र हवा के साथ ??
क्यूँ न नापते फिरें धरा के सिरे ??
छोड़ क्यूँ न दे सारी परवाहों  को
और ढील दें खुद को नियति की बाहों में

कि जब तक आज़ाद हैं आज़ाद रहते हैं
सेमल के बीज से कपासी ख्वाब लिए।